जवाब ( 1 )

  1. बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    शिया और अहले सुन्नत के बीच मतभेद वाले मुद्दों में से एक मशहूर मुद्दा दो ऐसी नमाज़ों को मिलाकर या अलग-अलग पढ़ना है, जिनका वक़्त कॉमन है जैसे ज़ोह्र अस्र और मग़रिब इशा की नमाज़. यहाँ पर इस बारे में शिया और अहले सुन्नत के नज़रियात (मत) बयान किये जा रहे हैं:

    पहला हिस्सा: शिया मज़हब और दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने का मस’अला

    सारे मुसलमानों की सम्मति के अनुसार हज के दिनों में अरफ़ा के मक़ाम पर ज़ोह्र व अस्र को मुज़्दलेफ़ा/मश’अर के मक़ाम पर मग़रिब इशा की नमाज़ को मिलाकर पढ़ना जाएज़ बल्कि मुस्तहब है.

    जैसा कि आयतुल्लाह सुब्हानी ने लिखा है कि:

    सारे फ़ोक़हा (शिया और अहले सुन्नत) अरफ़ा में ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ और मुज़्दलेफ़ा में मग़रिब व इशा की नमाज़ के मिलाकर पढ़ने को जाएज़ ठहराते हैं.

    (अस-सुब्हानी, शैख़ जाफ़र, अल-अक़ीदतुल इस्लामियह अला ज़ौए मदर्सति अहलिल बैत [अ.], पे. 340, तहक़ीक़ (शोधकर्ता): अरबी में नक़्ल, जाफ़र अल-हादी, प्रकाशक मोअस्ससतुल इमामिस-सादिक़ [अ.], प्रिंटिंग प्रेस: एतेमाद, क़ुम, पहला संस्करण, 1998 ई.)

    मज़हबे अहलेबैत अ. के अनुसार ज़ोह्र अस्र और मग़रिब व इशा की नमाज़ को हर हालत में मिलाकर पढ़ना जाएज़ है, यानी इंसान अपने वतन में हो या सफ़र की हालत में हो, बीमार हो या सेहतमंद हो, शरई मजबूरी हो या न हो, इन सारे हालात में कॉमन समय वाली दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ सकता है.

    शहीदे अव्वल ने शिया अक़ीदे को इस तरह बयान किया है कि:

    शिया उलमा के नज़दीक ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ को हालते सफ़र में या वतन में, एख़्तियार या मजबूरी में मिलाकर पढ़ने के जाएज़ होने में कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है.

    अहले सुन्नत ने भी इसी जाएज़ होने को अली अ., इब्ने अब्बास, इब्ने उमर, अबू मूसा, जाबिर, स’अद इब्ने अबी वक़्क़ास और आयशा से नक़्ल किया है. इब्ने अब्बास से नक़्ल हुआ है कि: रसूले ख़ुदा स. ने बिना किसी डर की हालत (जैसे जंग का समय, दरिन्दे जानवरों का भय आदि) में और सफ़र की हालत में न होते हुए भी ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा की नमाज़ को मिलाकर पढ़ा था…

    (अल-आमिली, अल-जज़ीनी, मुहम्मद बिन जमालुद्दीन मक्की, अश-शहीदुल अव्वल, (वफ़ात 786 हि.), ज़िक्रश-शिया फ़ी अह्कामिश-शरीयह, जि.2, पे. 332, तहक़ीक़ (शोधकर्ता): मोअस्ससतु आलुल-बैत [अ.] लिइह्याइत-तुरास, प्रकाशक: मोअस्ससतु आलुल-बैत अ. लिइह्याइत-तुरास, क़ुम, पहला संस्करण, 1419 हि.)

    लेकिन हर नमाज़ को अलग-अलग करके उसी के वक़्त में पढ़ना यह शिया फ़िक़्ह में मुस्तहब है और इसी बात को शिया फ़िक़्ही किताबों में भी बयान किया गया है जैसा कि शहीदे अव्वल ने लिखा है कि:

    जिस प्रकार शिया मज़हब में हर हालत में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना जाएज़ है उसी तरह हर नमाज़ को अलग-अलग करके पढ़ना भी मुस्तहब है, इसी बात की शिया रिवायतें और किताबें भी साक्षी हैं. (पिछला उद्दरण, पे. 335)

    किताबे “उरवह” के लेखक ने भी लिखा है कि:

    दो नमाज़ों को कि जिनके पढ़ने का वक़्त कॉमन है, जैसे ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा की नमाज़, उन्हें अलग-अलग पढ़ना भी मुस्तहब है.

    (अत-तबातबाई अल-यज़दी, सैय्यद मुहम्मद काज़िम, (वफ़ात 1337 हि.), अल-उरवतुल वुसक़ा, जि. 2, पे. 262, शोधकर्ता: मोअस्ससतुन-नश्रुल इस्लामी, प्रकाशक: मोअस्ससतुन-नश्रुल इस्लामी, पहला संस्करण, 1417 हि.)

    दो नमाज़ों के अलग-अलग पढ़ने के बारे में रिवायात:

    वह रिवायतें जो दो नमाज़ों के अलग-अलग पढ़ने के मुस्तहब होने पर साक्ष्य हैं, इस बिंदु की ओर संकेत देती हैं कि दो नमाज़ों के कॉमन टाइम में, एक नमाज़ जैसे ज़ोह्र को पढ़ने के बाद, इन दो नमाज़ों (ज़ोह्र या अस्र) की नाफ़ेला नमाज़ें पढ़ी जाएँ और अगर नाफ़ेला के वक़्त में उन्हें न पढ़ा जाये और अस्र की नमाज़ (क्योंकि ज़ोह्र की नमाज़ तो पहले ही पढ़ी जा चुकी है) पढ़ ली जाये तो ऐसा करना, ज़ोह्र व अस्र को मिलाकर पढ़ना कहा जाता है, इसी मतलब पर दो रिवायतें हैं, जिनको शिया फ़ोक़हा ने दलील के तौर पर ज़िक्र किया है:

    पहली रिवायत:

    मुहम्मद इब्ने हकीम कहता है कि मैंने इमाम काज़िम अ. को फ़रमाते हुए सुना था कि: जब तुम दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना चाहो तो फिर उनके बीच नाफ़ेला नमाज़ें न पढ़ो.

    (अल-कुलैनी, अबू जाफ़र मुहम्मद बिन याक़ूब बिन इसहाक़ (वफ़ात 328 हि.), अल-उसूल मिनल काफ़ी, जि. 3, पे. 287, हदीस न. 3, प्रकाशक: इस्लामियह, तेहरान, दूसरा संस्करण, 1362 हि. शम्सी)

    दूसरी रिवायत:

    मुहम्मद बिन हकीम कहता है कि मैंने इमाम काज़िम अ. को फ़रमाते हुए सुना कि दो नमाज़ों को मिलाकर उस वक़्त पढ़ना कहा जाता है कि जब उन दोनों नमाज़ों के बीच नाफ़ेला न पढ़ी जाए लेकिन अगर दो नमाज़ों के बीच नाफ़ेला को पढ़ा जाये तो फिर दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना नहीं कहा जाता.

    (अल-कुलैनी, अबू जाफ़र मुहम्मद बिन याक़ूब बिन इसहाक़, अल-उसूल मिनल काफ़ी, जि. 3, पे. 287, हदीस न. 4)

    और एक दूसरी मोवस्सक़ रिवायत है कि जिसमें इमाम काज़िम अ. ने फ़रमाया है कि: जब तुम दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना चाहो तो फिर उन दोनों के बीच नाफ़ेला न पढ़ो.

    (अल-हमदानी, आग़ा रज़ा, (वफ़ात, 1322 हि.), मिस्बाहुल फ़क़ीह, जि. 2, क़ाफ़ 1, पे. 209, प्रकाशक, मंशूरात मकतबतुस्सद्र, तेहरान, हैदरी पब्लिकेशन)

    वह रिवायतें जो दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने को जाएज़ मानती हैं:

    शिया फ़िक़्ह और शिया रिवायात के हिसाब से दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना यह सफ़र और शरई मजबूरी दोनों हालतों में जाएज़ है लेकिन जब कोई मजबूरी न भी हो और इन्सान सफ़र की हालत में न भी हो तब भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना जाएज़ है.

    इस बारे में शिया रिवायात की कई क़िस्में हैं:

    पहली क़िस्म: रसूले ख़ुदा की सीरत और दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना:

    इमाम बाक़िर अ. और इमाम सादिक़ अ. से नक़्ल होने वाली बहुत सी रिवायात में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने के बारे में रसूले ख़ुदा स. की सीरत को बयान किया गया है.

    पहली रिवायत: इमाम बाक़िर [अ.] से सहीह सनद के साथ

    ज़ोरारह ने इमाम बाक़िर अ. से नक़्ल किया है कि रसूले ख़ुदा स. ज़ोह्र अस्र और मग़रिब व इशा को एक अज़ान और दो इक़ामत के साथ मिलाकर पढ़ा करते थे.

    (शैख़ तूसी, तहज़ीबुल अहकाम, जि.3, पे. 18)

    दूसरी रिवायत: इमाम सादिक़ अ. की रिवायत सहीह सनद के साथ:

    इमामे सादिक़ ने कई रिवायतों में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने के बारे में रसूले ख़ुदा स. की सीरते हसना को बयान किया है. इन रिवायतों में से एक सहीह रिवायत में इमाम (अ.) ने फ़रमाया है:

    अब्दुल्लाह बिन सेनान ने इमाम सादिक़ (अ.) से नक़्ल किया है कि रसूले ख़ुदा (स.) नमाज़े ज़ोह्र अस्र, और मग़रिब इशा को एक अज़ान और दो इक़ामत के साथ हज़र में बिना किसी मजबूरी और सबब के मिलाकर पढ़ा करते थे.

    (सदूक़, अबू जाफ़र मुहम्मद बिन अली इब्निल हुसैन (वफ़ात 381 हि.), मन ला यह्ज़ुरुहुल फ़क़ीह, जि.1,पे. 287, हदीस 886, शोधकर्ता: अली अकबर अल-गफ़्फ़ारी, प्रकाशक: जमे’अ मुदर्रेसीन, हौज़ा इल्मियह क़ुम)

    हज़र: यानी सफ़र की हालत में न होना बल्कि अपने घर और शहर में ही मौजूद होना. हज़र का विलोम सफ़र है.

    तीसरी रिवायत: सहीह सनद के साथ इमामे सादिक़ अ. की रिवायत:

    एक और सहीह रिवायत में इमाम सादिक़ अ. ने साफ़ तौर पर फ़रमाया है कि: रसूले ख़ुदा स. बिना किसी मजबूरी और कारण के नमाज़े ज़ोह्र व अस्र को एक साथ पढ़ा करते थे और इस काम की वजह उम्मत के लिए आसानी ज़िक्र किया है.

    (सदूक़, अबू जाफ़र मुहम्मद बिन अली इब्निल हुसैन, एललुश-शराए, जि.2,पे.321, शोधकर्ता व प्रस्तुतकर्ता: सैय्यद मुहम्मद सादिक़ बहरुल उलूम, प्रकाशक: मंशूरात अल-मकतबतुल हैदरीयह व मतब’अतोहा, नजफ़े अशरफ, साल 1966 ई.)

    ज़ोरारह ने इमामे सादिक़ अ. से नक़्ल किया है कि रसूले ख़ुदा स. नमाज़े ज़ोह्र व अस्र के वक़्त बिना किसी मजबूरी (बारिश, दुश्मनों या दरिंदें जानवरों का डर, जंग आदि) के जमा’अत के साथ पढ़ी और नमाज़े मग़रिब व इशा भी बिना किसी मजबूरी के जमा’अत के साथ पढ़ी, रसूले ख़ुदा स. ने इस काम को प्रैक्टिकली किया ताकि उम्मत अपने वक़्त से ज़्यादा फ़ायदा उठाकर अच्छे तरीक़े से अपने कामों को निपटा सके.

    (कुलैनी, अल-उसूल मिनल काफ़ी, जि.3,पे. 286. प्रकाशक: इस्लामियह, तेहरान, दूसरा संस्करण, 1362 हि. शम्सी)

    इसी रिवायत को शैख़ सदूक़ और शैख़ तूसी ने भी अपनी किताब में ज़िक्र किया है.

    दूसरी क़िस्म की रिवायतें: इमाम बाक़िर अ. और इमाम सादिक़ अ. का दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने की स्वीकृति देना

    कुछ ऐसी रिवायतें हैं कि जिनसे पता चलता है कि इमाम बाक़िर अ. और इमाम सादिक़ अ. ने भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने की पुष्टि की है.

    पहली रिवायत मोतबर सनद के साथ:

    मोतबर रिवायत में ज़िक्र हुआ है कि ज़ोरारह ने इमाम बाक़िर अ. और इमाम सादिक़ अ. से उस इंसान के बारे में सवाल किया गया कि जिसने इशा की नमाज़ आसमान से लाली छंटने से पहले पढ़ी थी कि उसकी नमाज़ सही है या बातिल है? दोनों इमामों ने जवाब में फ़रमाया: ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है. इस रिवायत को शैख़ तूसी ने अपनी दो किताबों में बयान किया है.

    (शैख़ तूसी, अल-इस्तेब्सार, जि.1, पे. 271, तहज़ीबुल अहकाम,जि.2, पे.34, ह. 104)

    ज़रूरी नोट: शिया फ़ोक़हा ने फ़रमाया है कि नमाज़े मग़रिब का ख़ास वक़्त केवल उतना है कि जिसमें तीन रक्’अत मग़रिब की नमाज़ पढ़ी जाए. उसके बाद नमाज़े इशा का अव्वल वक़्त हो जाता है, उसके बाद से लेकर आधी रात तक कॉमन टाइम (मग़रिब व इशा की नमाज़ के लिए) माना जाता है. इस बिंदु को ध्यान में रखते हुए जब इन्सान, मग़रिब के बाद, इशा की नमाज़ पढ़ना चाहे तो वह वक़्त मग़रिब व इशा के लिए कॉमन माना जाता है और इसी वक़्त में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना कहा जाता है और इस रिवायत में इमाम बाक़िर अ. और इमाम सादिक़ अ. से इसी बारे में सवाल किया गया था और दोनों इमामों से इसी वजह से फ़रमाया था: ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है.

    दूसरी रिवायत मोतबर सनद के साथ:

    एक दूसरी मोतबर रिवायत के अनुसार कि जिसको शैख़ तूसी र. ने नक़्ल किया है कि इमाम सादिक़ अ. ने दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने के सवाल के जवाब में इस काम की ताईद (स्वीकृति देना) की है:

    इसहाक़ बिन अम्मार कहते हैं कि मैंने इमामे सादिक़ अ. से सवाल किया कि हम अपने शहर में (न कि सफ़र में) बिना किसी मजबूरी (बारिश, दुश्मन का डर, जंग इत्यादि) के नमाज़े मग़रिब व इशा को लाली छंटने से पहले मिलाकर पढ़ते हैं, क्या ऐसा करने में कोई हर्ज है? इमाम सादिक़ अ. ने फ़रमाया: ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है

    (शैख़ तूसी, अल-इस्तेब्सार, जि.1,पे.272, तहज़ीबुल अहकाम,जि.2,पे.263,हदीस, 1047)

    तीसरी क़िस्म: इमाम बाक़िर अ. का दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने का हुक्म, मोतबर सनद के साथ

    रिवायात की एक और क़िस्म है जो बताती है कि इमाम बाक़िर अ. ने बच्चों को हुक्म दिया था कि वह नमाज़े ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा को मिलाकर पढ़ा करें:

    पहली रिवायत सहीह सनद के साथ:

    इस रिवायत को मरहूम हमीरी ने सहीह सनद के साथ नक़्ल किया है:

    इमामे सादिक़ अ. ने फ़रमाया है कि मेरे वालिदे गेरामी इमाम बाक़िर अ. बच्चों को हुक्म दिया करते थे कि जब तक वह वुज़ू की हालत में होते हैं और किसी दूसरे काम में व्यस्त नहीं होते तो नमाज़े ज़ोह्र को नमाज़े अस्र के साथ और नमाज़े मग़रिब को नमाज़े इशा के साथ मिलाकर पढ़ें.

    (अल-हमीरी, क़ुम्मी, क़ुर्बुल असनाद, पे. 23)

    यह रिवायत सहीह और मोतबर है और दर्शाती है कि इमाम बाक़िर अ. की नज़र में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने में कोई हर्ज नहीं हैं क्योंकि अगर यह काम जाएज़ न होता तो इमाम कभी इस काम के करने का हुक्म न देते.

    नतीजा: शियों की सहीह और मोतबर रिवायात के अनुसार, रसूले ख़ुदा स. सफ़र के बग़ैर और बिना किसी मजबूरी के आम हालात में भी कॉमन टाइम वाली दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ा करते थे और जब उनसे इसका कारण पूछा जाता था तो फ़रमाते थे कि मैं अपनी उम्मत की आसानी के लिए कभी कभी ऐसा करता हूँ, जैसे रसूले ख़ुदा स. यह फ़रमाना चाहते हों कि अस्ल नमाज़ पढ़ना वाजिब है लेकिन अलग-अलग करके या दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना, यह वाजिब नहीं है, यानी जो दो नमाज़ों को अलग-अलग करके पढ़ ले उसकी नमाज़ भी ठीक है और जो दो नमाज़ों को कॉमन टाइम में मिलाकर पढ़ ले उसकी नमाज़ भी ठीक है. रसूले ख़ुदा स. के उत्तराधिकारी भी यानी अइम्मा-ए-ताहेरीन व मासूमीन अ. भी रसूले ख़ुदा स. की सीरत (आचरण) पर अमल करते हुए ख़ुद भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ते थे और दूसरों को भी इस काम के करने का हुक्म दिया करते थे.

    दूसरा हिस्सा:

    अहले सुन्नत और दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने का मस’अला

    अहले सुन्नत के अक्सर फ़िर्क़ों की नज़र में दो नमाज़ों को सफ़र की हालत में, बारिश में और किसी मजबूरी आदि में मिलाकर पढ़ना जाएज़ है

    इस बारे में उनके कथन भी अलग-अलग हैं, जिन्हें हम यहाँ पर संक्षेप में लिख रहे हैं:

    सफ़र की हालत में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना

    अहलेसुन्नत के फ़िर्क़े दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने को उस सफ़र में जो गुनाह के लिए न किया गया हो, जाएज़ समझते हैं.

    अबू हनीफ़ा हज के दिनों में अरफ़ा के दिन और मुज़्दलेफ़ा की रात के अलावा बाक़ी जगहों पर और हालात में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने को जाएज़ नहीं मानते.

    अहले सुन्नत के आलिम इब्ने क़ुदामा ने अपनी किताब में सफ़र की हालत में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने के बारे में अहले सुन्नत फ़िर्क़ों के कथन का उल्लेख किया है:

    ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा को लम्बे सफ़र में मिलाकर पढ़ना, बहुत से अहले सुन्नत उलमा के नज़दीक जाएज़ है. यह कथन स’अद, सईद इब्ने ज़ैद, उसामा, म’आज़ बिन जबल, अबू मूसा, इब्ने अब्बास और इब्ने उमर से नक़्ल हुआ है जबकि अकरमा, सुफ़यान सौरी, मालिक, शाफ़ई, इसहाक़, इब्ने मुन्ज़िर और इनके अलावा बहुत से उलमा का भी यही विचार है.

    (अल-मुक़द्दसी, हंबली, शम्सुद्दीन अबुल फ़रज अब्दुर्रहमान बिन मुहम्मद बिन अहमद बिन क़ुदामा (वफ़ात 682 हि.), अल-शरहुल कबीर अला मत्निल मुक़ना, जि.2,पे. 115, प्रकाशक: दारुल किताबिल अरबी,बैरूत,लेबनान)

    लिहाज़ा सफ़र की हालत में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने के बारे में, अह्ले सुन्नत के कथन स्पष्ट रूप से पता चल गए हैं.

    बारिश के समय दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना

    इस बारे में अहले सुन्नत फ़िर्क़ों के कथनों का सार यह है कि:

    शाफ़ई फ़िर्क़े ने उस इन्सान के लिए जो अपने शहर में है, बारिश की अवस्था में ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा की नमाज़ मिलाकर पढ़ना जाएज़ माना है.

    मालिक इब्ने अनस ने मग़रिब व इशा को मिलाकर मस्जिद में पढ़ने को उस बारिश के कारण जो बरस चुकी है या बाद में बरसेगी जाएज़ माना है और इसी प्रकार जब अँधेरा और कीचड़ इतना अधिक हो कि जनसाधारण जूते न पहन सकते हों तब भी मग़रिब व इशा की नमाज़ मिलाकर पढ़ना जाएज़ है लेकिन बारिश की वजह से ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ मिलाकर पढ़ना मकरूह है.

    हंबली मज़हब वाले केवल मग़रिब व इशा की नमाज़ को ‘तक़दीम’ व ‘ताख़ीर’ (यानी या तो अस्र की नमाज़ को उसके फ़ज़ीलत के वक़्त से पहले पढ़ ले या ज़ोहर में देर कर दे और उसके फ़ज़ीलत के वक़्त को छोड़ दे ताकि अस्र के फ़ज़ीलत का अव्वल वक़्त मिल जाए) की अवस्था में और बर्फ़बारी, ओले गिरने, मिट्टी व कीचड़ होने और बहुत ही ठंडी हवा कि जो कपड़ों को भिगा देती है, ऐसी अवस्था में मग़रिब व इशा की नमाज़ को मिलाकर पढ़ने को जाएज़ मानते हैं और यह मिलाकर पढ़ने की छूट केवल उन लोगों के लिए है जो मस्जिद में जमा’अत के साथ नमाज़ पढ़ते हों लेकिन वह इंसान जो मस्जिद ही में है या घर में नमाज़ पढ़ता है या बारिश और बर्फ़बारी की अवस्था में छाता आदि लेकर मस्जिद जाता है या उसका घर मस्जिद के नज़दीक है, इन सारे लोगों के लिए मिलाकर पढ़ना जाएज़ नहीं है.

    (सैय्यद साबिक़, फ़िकहुस-सुन्नह, जि.1, पे. 291, प्रकाशक: दारुल किताबिल अरबी, बैरूत, लेबनान)

    बीमारी या किसी मजबूरी की हालत में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना

    अहमद इब्ने हंबल, क़ाज़ी हुसैन,ख़त्ताबी और शाफ़ई के कुछ फ़ालोवर्स का विचार यह है कि बीमारी की हालत में दो नमाज़ों को ‘तक़दीम’ व ‘ताख़ीर’ की अवस्था में मिलाकर पढ़ना जाएज़ है क्योंकि बीमारी की तकलीफ़, बारिश की तकलीफ़ से ज़्यादा है.

    हंबली फ़िर्क़े के उलमा ने अपने अक़ीदे में विस्तार किया है और दो नमाज़ों को ‘तक़दीम’ व ‘ताख़ीर’ की अवस्था में उन लोगों के लिए मिलाकर पढ़ना जाएज़ माना है, जिनके सामने कोई मजबूरी हो या जिनके लिए कोई डर और ख़तरा हो.

    (सैय्यद साबिक़, फ़िकहुस-सुन्नह, जि.1, पे. 292)

    यहाँ तक दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने के बारे में अहले सुन्नत के महत्वपूर्ण कथनों का उल्लेख किया लेकिन इन कथनों और नज़रियात की विस्तृत जानकारी के लिए अहले सुन्नत की शरई अहकाम वाली किताबों को देखें.

    नतीजा:

    उल्लिखित सारे कथन यह सिद्ध करते हैं कि सफ़र की हालत में और दूसरी कुछ अवस्थाओं में दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना जाएज़ हैं. अहले सुन्नत की रिवायात भी इसी बात की पुष्टि करती हैं.

    ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि अहले सुन्नत उन अवस्थाओं के अलावा नमाज़ को मिलाकर पढ़ना जाएज़ नहीं मानते हालाँकि यह नज़रिया उन रिवायात का परस्पर विरोधी है जो इन अवस्थाओं के अलावा भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ने को जाएज़ मानती हैं. जैसे कि मुस्लिम नैशापूरी ने अपनी किताब सहीह मुस्लिम के एक भाग में जिसका शीर्षक “बाबुल जम’अ बैनस-सलातैन फ़िल हज़र” में लिखा है कि कुछ रिवायात में आया है कि रसूले ख़ुदा स. अपने शहर में होते हुए भी और बिना किसी मजबूरी और आपदा के भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ा करते थे:

    पहली रिवायत मुस्लिम ने इब्ने अब्बास से नक़्ल की है कि रसूले ख़ुदा स. की सीरत थी को वह सफ़र और दुश्मनों या ख़ूंख़ार जानवरों से डर की अवस्था में न होने के बावजूद भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ा करते थे.

    (अल-नैशापूरी, अल-क़ुशैरी, अबुल हसन मुस्लिम इब्निल हज्जाज (वफ़ात 261 हि.), सहीह मुस्लिम, जि.1, पे. 489, ह. 705, चैप्टर सलातुल मुसाफ़ेरीन, शोधकर्ता: मुहम्मद फ़ोवाद अब्दुल बाक़ी, प्रकाशक: दार एह्या’अल तुरासल अरबी, बैरुत,लेबनान)

    वक़ी’अ की रिवायत में आया है कि मैंने इब्ने अब्बास से कहा कि रसूले ख़ुदा स. क्यों दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ते थे? इब्ने अब्बास ने जवाब दिया ताकि उम्मत को ज़हमत न हो.

    इन सारी रिवायात से पता चलता है कि:

    रसूले ख़ुदा स. बगैर सफ़र की हालत के और बिना किसी डर और ख़तरे के या बारिश आदि के दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ा करते थे और यह बात इसका प्रमाण है कि नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना सिर्फ़ उन्ही अवस्थाओं में जाएज़ नहीं है जोकि अहले सुन्नत बयान करते हैं बल्कि आम और नार्मल हालात में भी दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना जाएज़ है हालाँकि जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि अगर कोई बिना किसी मुश्किल और ज़हमत के पांच नमाज़ों को अलग-अलग वक़्त में पढ़ सकता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है बल्कि बेहतर ही है. अस्ल काम नमाज़ पढ़ना है अब हर नमाज़ी अपनी सहूलियत के हिसाब से अमल कर सकता है, चाहे मिलाकर पढ़े या अलग-अलग, दोनों तरीक़े आम हालात में भी इस्लाम में सही हैं.

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