जवाब ( 1 )

  1. तमाम उलमा-ए- इस्लाम चाहे वह सुन्नी हों या शिया इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि क़ुरआने करीम में कोई तहरीफ़ नही हुई है। दोनों तरफ़ के सिर्फ़ कुछ अफ़राद ही ऐसे हैं जिन्होंने क़ुरआने करीम में तहरीफ़ के वजूद को रिवायात के ज़रिये साबित करने की कोशिश की है। लेकिन दोनों गिरोह के जय्यद उलमा ने इस नज़रिये को सख्ती से रद्द किया है और तहरीफ़ से मुताल्लिक़ रिवायतों को जाली या फिर तहरीफ़े मअनवी से मुतल्लिक़ माना है। तहरीफ़े मअनवी यानी क़ुरआने करीम की आयतों की ग़लत तफ़्सीर।
    हमारा अक़ीदह यह है कि आज जो क़ुरआन उम्मते मुस्लेमा के हाथों में है यह वही क़ुरआन है जो पैगम्बरे इस्लाम (स.अ ) पर नाज़िल हुआ था। न इस में से कुछ कम हुआ है और न ही इसमें कुछ बढ़ाया गया है।
    पहले दिन से ही कातिबाने वही का एक बड़ा गिरोह आयतों के नाज़िल होने के बाद उनको लिखता था और मुसलमानों की ज़िम्मेदारी थी कि वह रात दिन इस को पढ़े और अपनी पांचों वक़्त की नमाज़ों में भी इस की तकरार करें। असहाब का एक बड़ा गिरोह आयाते क़ुरआन को हिफ़्ज़ करता था ,हाफ़िज़ान व क़ारियाने क़ुरआन का इस्लामी समाज में हमेशा ही एक अहम मक़ाम रहा है और आज भी है। यह सब बातें इस बात का सबब बनी कि कुरआने करीम में कोई मामूली सी भी तहरीफ़ वाक़ेअ न हो सकी।
    इसके अलावा अल्लाह ने रोज़े क़यामत तक क़ुरआन की हिफ़ाज़त की ज़मानत ली है लिहाज़ा अल्लाह की ज़मानत के बाद इस में तहरीफ़ नामुमकिन है। “ इन्ना नहनो नज़्ज़लनज़्ज़िकरा व इन्ना लहु लहाफ़िज़ून। ” यानी हम ने ही क़ुरआन को नाज़िल किया है और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।

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