इमाम रज़ा अ. ने मामून का उत्तराधिकारी बनना क्यों स्वीकार किया?
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जवाब ( 1 )
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
मामून ने अरब के ईराक़ की गवर्नरी हसन बिन सह्ल को सौंप दी थी और ख़ुद मर्व में तैनात रहा. अलवियों के एक गुट ने ख़िलाफ़त की लालच में बग़ावत का परचम बुलंद किया और चूंकि ईराक़ी जनता हसन बिन सह्ल से नाराज़ थी इसलिए एक बड़े गिरोह ने अलवियों की बैअत की और उनकी पैरवी की. मामून ने यह ख़बर सुनी तो डर गया और फ़ज़ल बिन सह्ल ज़ुर-रियासतैन से सलाह मशवरा किया और उसकी सलाह पर इमाम रज़ा अ. को वलीअह्द (उत्तराधिकारी) बनाने का फ़ैसला किया ताकि इस तरीक़े से सादात और अलवियों को अपनी बात मानने पर तैयार कर सके.(1)
उत्तराधिकार का मामला इमाम रज़ा अ. के राजनैतिक जीवन में एक अहेम मुद्दा है. इसका विश्लेषण करने के लिए इस्लाम का इतिहास, बनी उमय्या के ख़ोलफ़ा की तारीख़ साथ ही बनी अब्बास के ख़ोलफ़ा के शासन संभालने की कैफ़ियत के बारे में शोध करने की ज़रुरत है. इमाम रज़ा अ. की शहादत (203 हिजरी) तक इस्लामी ख़िलाफ़त के शासन क्षेत्रों की आम सूरते हाल को संक्षेप में कुछ यूँ बयान किया जा सकता है: बनी उमय्या के शासक आम तौर पर ज़ालिम और सितमगर थे और ख़िलाफ़त से उनका मक़सद शासन करने के अलावा कुछ न था. केवल उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ का रवय्या बाक़ी शासकों से कुछ हद तक अलग था जिसका शासनकाल ज़्यादा लम्बा नहीं था. इन ख़ोलफ़ा के ज़ुल्म व सितम की वजह से अमवी हुकूमत के विरुद्ध हर तरफ़ से बगावतों और बलवों का सिलिसिला शुरू हो गया. अधिकतर बग़ावतों का रंग दीनी और मज़हबी था. मुसलमान, दीने इस्लाम और दीनी अहकाम को ज़िन्दा करने के लिए और इस्लामी देशों में रहने वाले दूसरे आसमानी दीनों के पैरोकार इंसाफ़ व बराबरी के लिए खानदाने अली अ. (जिन्हें अहलेबैत अ. कहा जाता है) से उम्मीद लगाये बैठे थे. अब्बासियों ने मुसलमानों की उम्मीद को अपने फ़ायदे में इस्तेमाल किया. बनी अब्बास ने शुरुआत में नारा लगाया कि वह मुसलमानों को बनी उमय्या के शर से छुड़ाने के लिए आये हैं और उन्होंने अपना मिशन कई मरहलों में अहलेबैत अ. के हक़ में प्रचार प्रसार करके आगे बढ़ाया, जिसके कुछ नमूने नीचे दिए जा रहे हैं:
शुरुआत में बनी अब्बास का अलवियों के हित में दावत देना
अहलेबैत अ. और इतरत के हक़ में दावत देना
आले मुहम्मद स. की ख़ुशनूदी हासिल करने के लिए आम दावत
अपने लिए मीरासे ख़िलाफ़त का दावा (2)
अब्बासियों ने जब मक्कारी और फ़रेबकारी के द्वारा हुकूमत को अपने खानदान में क़ाएम किया तो उन्होंने अपने तमाम वादों और ख़ुशखबरियों को रौंद डाला और आम जनता (ख़ासकर अलवियों के साथ) बुरा व्यवहार शुरू कर दिया और हर बहाने से उन्हें जहाँ पाया तकलीफ़ का निशाना बनाया,क़ैद किया या क़त्ल किया. अब्बासियों ने अपने चचाज़ाद भाइयों यानी आले अबूतालिब के साथ जो बुज़दिलाना सुलूक किया उसकी वजह से आम जनता में आक्रोश की लहर दौड़ गयी और इसी वजह से उस शासन के विरुद्ध भी बग़ावत का सिलसिला शुरू हुआ.
मामून के दौर में पिछले अब्बासी शासकों से कहीं अधिक बलवों और मिशनों को बढ़ावा मिला. मामून जान गया कि मुश्किलों से छुटकारा पाने के लिए कुछ क़दम उठाने की ज़रुरत है जिनमें से:
अलवी बग़ावत को शांत करना
अलवियों से अब्बासी शासन को क़ुबूल करवाना
अलवी ख़ानदान से जनता की प्रतिदिन बढ़ती हुई मोहब्बत और समाज में उनके सम्मान को समाप्त करना, मुसलमानों के दिलों से इस मुहब्बत व सम्मान की जड़ें उखाड़ फेंकना और उसके लिए ऐसे हथकंडे अपनाना कि अलवियों को ख़बर हुए बिना जनता के अन्दर उन्हें बे क़द्र व क़ीमत किया जाये. मामून ने ख़ास तौर पर कहा था कि वह इमाम रज़ा अ. को जनता की आम वोटिंग में ख़िलाफ़त के लिए अयोग्य बनाकर पेश करना चाहता है.
मामून को जब हमीद बिन मेहरान और दूसरे अब्बासियों की तरफ़ से आलोचना का सामना करना पड़ा तो उसने कहा: यह मर्द हमारी आँखों से ओझल था;वह लोगों को अपनी ओर बुलाता था, इसी आधार पर हमने फ़ैसला किया कि वह हमारा उत्तराधिकारी बने ताकि वह अगर लोगों को अपनी तरफ़ बुलाये तो भी हमारे हक़ में हो” (3)
इमाम रज़ा अ. मामून के इरादों से जागरूक थे इसीलिए आपने ख़ुद मामून से फ़रमाया: तुम चाहते हो कि लोग कहना शुरू करें कि “अली बिन मूसर-रिज़ा का दिल दुनिया और सत्ता के लोभ से ख़ाली नहीं हैं बल्कि यह दुनिया है कि उनकी ओर आकर्षित नहीं है, क्या तुम नहीं देखते कि किस तरह उसने सत्ता की लालच में उत्तराधिकारी का पद क़ुबूल किया है” (4)
अतः उत्तराधिकार के बारे में मिलता है:
इमाम रज़ा अ. की तरफ़ से ख़िलाफ़त की पेशकश ठुकराए जाने के बाद मामून ने कहा: मैं अपने बाद उत्तराधिकारी का पद आपको सौंप देता हूँ. इमाम अ. ने फ़रमाया: मुझे इस काम से माफ़ करो.
यहाँ मामून ने धमकी के अंदाज़ में इमाम अ. से कहा: उमर ने सलाहकार समिति में 6 लोगों को रखा था जिनमें आपके दादा अमीरुल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब थे और शर्त लगायी कि इनमें से जो भी विरोध करे उसका सर क़लम किया जाये. कोई चारा नहीं इसके अलावा कि आप मेरी सलाह मान लें. इसके अलावा कोई और रास्ता अपने सामने नहीं पाता.
इमाम अ. ने जवाब दिया: तो मैं क़ुबूल करता हूँ इस शर्त पर कि: “न कोई आदेश जारी करूँ, न किसी को रोकूँ, न कोई फ़ैसला करूँ, न किसी की नियुक्ति करूँ, न ही किसी को उसके पद से हटाऊँ और न ही कोई पद बदलूँ” मामून ने इमाम अ. की शर्त क़ुबूल कर ली. (5)
जब लोगों ने इमाम अ. से उत्तराधिकार क़ुबूल करने का कारण पूछा तो आपने फ़रमाया: मैंने यह पद मजबूरी में और ज़बर्दस्ती क़ुबूल किया है. (6)
इमाम अ. ने इस पद का भार संभालने के लिए जो शर्तें रखीं वह अस्ल में हुकूमत में शिरकत से आपकी बेज़ारी के बराबर है क्योंकि इमाम अ. ने फ़रमाया: मैं हरगिज़ किसी को किसी पद पर नियुक्त नहीं करूंगा, किसी को उसके पद से न ही हटाऊँगा, न ही किसी रस्म व तरीक़े को बदलूँगा और मौजूदा हालात में कोई परिवर्तन नहीं करूंगा, सिर्फ़ दूर से हुकूमत के मामले में एक सलाहकार का किरदार निभाऊँगा. इस शर्त से भी पता चलता है कि इमाम अ. ने यह पद मजबूरी में क़ुबूल किया था.
इसके अलावा कुछ किताबों में है कि इमाम अ. ने फ़रमाया: यह पद अपने अंत तक न पहुँच सकेगा.
उत्तराधिकार के दस्तावेज़ों के पीछे इमाम अ. के लिखे हुए जुमलों को ध्यानपूर्वक देखा जाये तो पता चलता है कि इमाम अ. को यह सब कुछ नापसंद था और आप उसके नापसंद अंजाम से भी आगाह थे.
इसीलिए बहुत कम समय गुज़रा था कि बग़दाद में अब्बासियों ने मामून के विरुद्ध बग़ावत करके इब्राहीम बिन महदी के हाथ पर बैअत की, (मामून के धोखे में आने वाले) अलवी भी समझ गए कि उसने यह काम ईमान की वजह से नहीं किया था और एक बार फिर अब्बासियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया इसलिए मामून के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा कि इमाम रज़ा अ. को रास्ते से हटा दे. (7)
हवाले:
1.देहख़ुदा, लुग़तनामा,जि.8,पे.12109, मदख़ल “रज़ा”
2.सैय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमुली, ज़िन्दगी-ए-सियासिये हश्तुमीन इमाम, पे. 20, 1381
3.सदूक़, उयूने अखबारुर्रिज़ा,जि.2,पे. 309, 1373
4.सदूक़, उयूने अखबारुर्रिज़ा,जि.2,पे. 314-315
5.मुफ़ीद, अल-इरशाद,पे.455-456
6.देखें: सदूक़, उयूने अखबारुर्रिज़ा,जि.2,पे. 309, 312-313
7.सैय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमुली, ज़िन्दगी-ए-सियासिये हश्तुमीन इमाम बहवालए देहख़ुदा, लुग़तनामा, जि.25, मदख़ल “रज़ा”, पे. 484-486