जवाब ( 1 )

  1. बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    वैसे तो एतिहासिक प्रमाणों की रौशनी में यह मुद्दा दिन के उजाले की तरह वाज़ेह है कि इमामे हुसैन (अस.) का क़ातिल कौन है लेकिन इसके बावजूद कुछ लोग आँखों में धूल झोंक कर जनता को धोखा देने, इस्लामी भाईचारे के माहौल में ज़हर घोलने और नफ़रत फैलाने की कोशिश कर रहे हैं और इमाम हुसैन(अस.)की हदीस के एक जुमले को बहाना बनाकर शियों को इमाम का क़ातिल ठहरा रहे हैं;उस हदीस को शैख़ मुफ़ीद ने अपनी किताब “अल-इरशाद” में नक़्ल किया है,जिसमें इमाम हुसैन (अ.)अपने शियों से मुख़ातिब हैं.

    बनी उमय्यह के पैरोकार कल भी और आज भी हादस-ए-कर्बला के बारे में हरगिज़ एक स्टैंड नहीं ले सके हैं, कभी क़ियामे इमामे हुसैन(अ.) को बग़ावत, फ़ितना फैलाना, फूट डालना, सरकशी का नाम देकर इमाम हुसैन (अ.) को नऊज़ बिल्लाह ख़ताकार और यज़ीद को इमाम हुसैन (अ.) के क़त्ल का हक़दार समझते हैं; और इस बारे में रसूल(स.)की कुछ हदीसों का हवाला देते हैं,जिन में तफ़रक़ा फैलाने वाले के क़त्ल का हुक्म दिया गया है; और आख़िर में यह कहकर यज़ीद का दामन साफ़ करने की नाकाम कोशिश करते हैं कि «इन्ना यज़ीद क़तलल हुसैन बे सैफ़े जद्देहि» बेशक यज़ीद ने हुसैन को उन्ही के नाना की तलवार से क़त्ल किया है.ज़ाहिर सी बात है कि इस सूरत में इस हक़ीक़त को तो मानते ही हैं कि इमाम हुसैन(अ.) का क़ातिल यज़ीद ही है.

    बहुत से लोग हैं, जिन्होंने यज़ीद को क़ातिले इमाम जानकार भी उसे बे गुनाह साबित करने की नाकाम और नापाक कोशिश की है; जिनमे से इब्ने हजर हैसमी व मुहम्मद कुर्द अली व तक़ीयुद्दीन इब्न अस्सलाह व ग़ज़ाली व इब्ने तैमियह वग़ैरह जैसे अफ़राद का नाम लिया जा सकता है ; जिनके कथन किताबों में दर्ज हैं, आप ख़ुद देख सकते हैं .

    देखें: अल-फ़तावल हदीसियह पे.193. और देखें: रेसालह इब्ने तैमियह, यज़ीद इब्ने मुआवियह के बारे में सवाल, पे.14 ,15 व 17، व एहयाउल-उलूमद-दीन,ग़ज़ाली, जि. 3، पे.125

    यहाँ पर असली सवाल यह है कि इमाम को कूफ़े वालों ने क़त्ल किया और कूफ़े के लोग शिया थे, जिन्होंने इमाम को ख़ुद ख़त लिखकर बुलाया फिर उनके साथ दग़ा की, और उन्हें क़त्ल कर दिया. इस के साथ साथ वह इमाम हुसैन (अ.)की एक हदीस को भी सनद के तौर पर पेश करते हैं,जिसमें इमाम ने उनकी बेवफ़ाई और दग़ाबाज़ी को बयान किया है और उन्हें बद-दुआ दी है,जिसके अलफ़ाज़ कुछ यूं हैं:

    “बारे इलाहा! इन्हें सिर्फ़ कुछ समय तक ही दुनिया की नेमतों से नवाज़ फिर उन में फूट और तफ़रक़ा डाल दे ,उन्हें टोलियों में बाँट दे ,उनके हाकिम कभी उनसे राज़ी न हों, क्योंकि इन्होंने हमारी नुसरत (मदद)के लिए हमें बुलाया, फिर हमारे दुशमन बन गए, और हमें क़त्ल कर दिया”

    (अल-इरशाद , शैख़ मुफ़ीद, जि. 2, पे. 110)

    इमाम हुसैन (अ.) की बद-दुआ की हक़ीक़त:

    इमाम हुसैन (अ.) ने कूफ़े वालों को उनकी बेवफ़ाई के सबब बद-दुआ दी; कुछ लोग यह समझकर कि कूफ़े वाले शिया थे, यह साबित करना चाहते हैं कि इमाम ने शियों को बद-दुआ दी है,क्योंकि पहले उनहोंने इमाम की बैअत की फिर इमाम के साथ बेवफ़ाई करके उनके साथ जंग की और उन्हें क़त्ल कर दिया.

    लेकिन यही अनुमान कि इमाम हुसैन (अ.) के ज़माने में कूफ़े वाले सब शिया थे, या कूफ़े की ज़्यादातर आबादी शिया थी , या यह कि शिया भारी तादाद में थे , यह सब अनुमान तारीख़ी हिसाब से ग़लत हैं, क्योंकि मोआवियह के ज़माने से जब से ज़ियाद बिन अबीह कूफ़े का गवर्नर बना था, तब से जिस तरह से शियों का क़त्ले आम हुआ है तो इमाम हुसैन (अ.) के ज़माने तक कूफ़े में शिया बहुत ही कम बचे थे, जिनमें से ज़्यादातर जेलों में गिरफ़्तार थे. बहरहाल कर्बला में लश्करे उमरे साद में जो कूफ़ी थे उनमें कोई भी शिया नहीं था, वह लोग कौन थे? अलग-अलग तरह के लोग थे लेकिन जो भी हों, शिया तो बहरहाल नहीं थे, इस बारे में मरहूम सय्यद मोहसिन अमीन अपनी किताब “आयानुश-शिया” में लिखते हैं:

    “हरगिज़ हरगिज़ मुमकिन नहीं कि इमाम को शहीद करने वाले ख़ुद उन्ही के शिया हों, बल्कि आपको शहीद करने वाले कुछ लालची दुनियापरस्त थे,जो सिरे से किसी दीन व मज़हब के मानने वाले थे ही नहीं. क्या यह अक़्ल में आने वाली बात है कि कोई किसी को दोस्त रखता हो बल्कि बेपनाह मोहब्बत करता हो, बल्कि मोतक़िद हो, उसके बावजूद उससे जंग भी करे? हरगिज़ हरगिज़ यह मुमकिन नहीं है”

    (आयानुश-शिया, जि. 1, पे. 585)

    कूफ़ा शियों से ख़ाली

    इस संदेह की बुनियाद इस अनुमान पर आधारित है कि कूफ़े वाले शिया था और कर्बला में इमाम के विरूद्ध लश्कर कूफ़े से आया था न कि शाम से; जबकि वास्तविकता यह है कि कूफ़ा शियों से ख़ाली हो चुका था.

    इब्ने अबिल हदीद मोतज़ेली इस बारे में लिखते हैं:

    जिस साल इज्तेमा’अ हुआ था उस साल मुआवियह ने अपने सारे अहेलकारों को एक ही मज़मून का ख़त लिखा था और वह यह कि: “जो भी अबूतुराब और उनके अहलेबैत अ.स. की फ़ज़ीलत में एक भी हदीस नक़्ल करे उसका ख़ून मेरे ज़िम्मे नहीं, वह क़त्ल कर दिया जायेगा.”

    उस वक़्त सबसे ज़्यादा जो मुसीबतों में घिरे थे वो कूफ़े वाले थे क्योंकि वहां अली अ. के शियों की ज़्यादा तादाद थी, इसलिए वहां ज़ियाद बिन अबीह को तैनात किया गया और बसरह को भी कूफ़े के साथ जोड़ दिया गया तो उसने अली अ. के शियों का पीछा करना शुरू कर दिया और वह उन्हें अच्छी तरह पहचानता था क्योंकि हज़रत अली अ. के दौर में वह ख़ुद को उन्ही में से बताता था लिहाज़ा जहाँ जैसे जिस पनाहगाहों और छिपने की जगहों में उन्हें पाता था, क़त्ल कर देता था, उन्हें डराता, उनके हाथ पैर काट देता, आँखें फोड़ देता, खजूर के पेड़ों पर सूली चढ़ा देता और उन्हें इराक़ से निकलने पर मजबूर करता था यहाँ तक कि वहां कोई भी ऐसा न बचा जो अली अ. के शिया के उन्वान से पहचाना जाता हो

    (शरहे नहजुल बलाग़ा,जि. 11, पे. 44)

    इसलिए इमाम हुसैन अ. के ज़माने में कूफ़े में इतने शिया थे ही नहीं, ख़ास तौर से ख़त लिखने वालों में से मशहूर शख़्सियतें शबस इब्ने रब’ई और हज्जार इब्ने अबजुर और अम्र इब्ने हज्जाज जैसों की है, जिनके बारे में किसी ने नहीं कहा कि ये लोग शिया थे.

    इमाम हुसैन अ. को मामूली और ग़ैर मशहूर लोगों ने नहीं बल्कि बहुत ही मशहूर और जाने पहचाने लोगों ने क़त्ल किया है और उनमे से कोई भी न ही शिया था और न ही पहले वे शिया थे बल्कि अहलेबैत अ.स. के चाहने वाले भी नहीं थे हाँ अलबत्ता अहलेबैत अ. से दुश्मनी के मामले में वह जाने पहचाने लोग थे, वह शिया नहीं बल्कि शियों के दुश्मन होने में मशहूर थे और सिर्फ़ वही लोग नहीं बल्कि उनके बाप दादा भी ऐसे ही थे उनमे से उमर इब्ने साद इब्ने अबी वक़्क़ास, शिम्र बिन ज़िल्जौशन, शबस बिन रबई, सेनान बिन अनस, हज्जार बिन अबजुर और हुर्मुला बिन काहिल जैसे लोग हैं, जो न ही शिया के उन्वान से पहचाने जाते हैं और न ही अली अ. से मोहब्बत करने वालों के उन्वान से बल्कि अहलेबैत अ. और अली अ. के शियों की दुश्मनी में मशहूर थे.

    इमाम हुसैन अ. के अलफ़ाज़, इरशादात, ख़ुतबे, ख़त वगैरह सबका सब खंगालने और उनमे लाख तलाश करने के बाद कहीं नहीं मिला कि इमाम ने कूफ़े वालों के लिए अपने बाबा के शिया या उनके चाहने वाले होने की लफ़्ज़ इस्तेमाल की हो, जबकि अगर ऐसा होता तो हज़रत ज़रूर बयान करते ताकि उनके दिल में ज़्यादा असर हो, हाँ आशूर के दिन इमाम अ. के आखरी अलफ़ाज़ से यह ज़रूर पता चलता है कि इमाम के क़ातिल शिया ही थे लेकिन हज़रत अली अ. के शिया नहीं बल्कि अबू सुफ़यान के शिया. जैसा कि इमाम ने ख़ुद आशूर के दिन उन्हें इसी नाम से पुकारा है:

    “वाय हो तुम पर ऐ अबु सुफ़यान के शियों!, अगर तुम्हारे पास दीन नहीं और क़यामत का तुम्हे डर नहीं है तो कम से कम इस दुनिया में तो आज़ाद रहो और अपने हसब व नसब (वंश) का ख़याल रखो अगर तुम अरब हो जैसा कि तुम लोग ख़ुद को समझते हो”

    (मक़तलुल हुसैन, ख़्वारज़मी, जि. 2, पे. 38)

    क़ातिलों की ज़बानी उनकी पहचान

    आशूर के दिन ज़ालिमों ने इमामे हुसैन अ. पर जिस तरह ज़ुल्म ढाया, वह उनकी पुरानी दुश्मनी को झलकाता है और इसे उन्होंने खुलकर कहा भी है, जिससे अच्छी तरह पता चल जाता है कि वह लोग इमाम से एक पुरानी और गहरी दुश्मनी रखते थे

    उन्होंने इमाम हुसैन अ. से खुलकर कहा: “हम तुम्हारे बाप की दुश्मनी में तुमसे जंग कर रहे हैं”

    (यनाबीउल मवद्दत, क़ुनदूज़ी हनफ़ी,पे 346)

    यहाँ पर अपनी बात को समेटते हुए केवल इतना कहना है कि पुराने समय से लेकर आज तक जब कभी “शिया” शब्द “मुतलक़” यानी बिना किसी क़ैद व शर्त के कोई इस्तेमाल करता है तो उसका मतलब अली अ. के पीछे चलने वाला और उनका फ़ॅालोवर है जबकि कर्बला में इमाम के क़ातिल साफ़ साफ़ कह रहे थे कि हम आपके बाबा की दुश्मनी में आपसे लड़ रहे हैं तो यह कैसे संभव है कि वो शिया भी हों और हज़रत अली अ. के दुश्मन भी, यह बात तो परस्पर विरोधी (Contradictory) है.

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