जवाब ( 1 )

  1. बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    वैसे तो हुक़ूक़ की दो क़िस्में बताई जाती हैं एक हुक़ूक़ुल्लाह और दूसरे हुक़ूक़ुन्नास लेकिन सच्ची बात यह है कि दूसरी वाली क़िस्म भी पहली वाली की ही शाख़ है इस लिहाज़ से कि हर हक़्क़ुन्नास अस्ल में अल्लाह का हक़ भी है, लोगों के हुक़ूक़ को पामाल करने वाला हक़ीक़त में अल्लाह के हक़ को भी पामाल करता है इसलिए अल्लाह के हक़ की पामाली की वजह से उसे चाहिए कि पहले उसकी बारगाह में तौबा करे.

    दूसरी बात यह है कि लोगों के हुक़ूक़ की भरपाई केवल तौबा से नहीं होती बल्कि उसे भरने और रिकवर करने से होती है और ये हुक़ूक़ भी दो तरह के हैं: माली हुक़ूक़ और ग़ैर माली हुक़ूक़. माली हुक़ूक़ के लिए उन्हें अदा करना ज़रूरी है और ग़ैर माली हुक़ूक़ के लिए उससे हलालियत तलब करना ज़रूरी होता है; जिसका हक़ पामाल किया है.

    तीसरी बात: अल्लाह के हुक़ूक़ का हिसाब तो बालिग़ होने के बाद से होता है लेकिन लोगों के हुक़ूक़ का हिसाब बालिग़ होने के बाद से नहीं बल्कि अगर उससे पहले भी किसी का हक़ बर्बाद किया है तो वो उसके माल का ज़िम्मेदार है क्योंकि बालिग़ होने से पहले अगरचे तकलीफ़ी अहकाम (यानी वाजिब, हराम, मुस्तहब, मकरूह और मुबाह) लागू नहीं होते लेकिन अहकामे वज़ई (जैसे नजासत, तहारत, सही, बातिल, मालिकियत, ज़ौजियत वगैरह) लागू होते हैं.

    चौथी बात: जिसका हक़ है या आप उसे पहचानते हैं या नहीं पहचानते, अगर पहचानते हैं तो या तो उस तक पहुँच है या नहीं है, अगर पहुँच है तो या रुसवाई का डर है या नहीं है तो अगर पहुँच भी हो और रुसवाई का डर भी न हो तो ख़ुद जिसका हक़ है उसको उसका हक़ पहुँचाना चाहिए ताकि ज़िम्मेदारी पूरी हो जाये लेकिन अगर रुसवाई का डर हो तो किसी तरह से उस का हक़ उस तक या अगर वो दुनिया से गुज़र गया है तो उसके वारिसों तक पहुँचा दे. न नाम लेने की ज़रुरत है और न बाक़ी तफ़सील बताने की ज़रुरत है. अहेम यह है कि आपकी तरफ़ से हक़दार तक उसका हक़ पहुँच जाए और अगर किसी भी वजह से हक़दार तक पहुँच न हो या आप उसे पहचानते ही न हों तो उसकी तरफ़ से “रद्दे मज़ालिम” के उन्वान से हाकिमे शर’अ को अदा करें, साथ ही साथ उसकी तरफ़ से सदक़ा भी दें और नेक काम करें.

    पांचवीं बात: अदा करने की मिक़दार (quantity) के बारे में अगर वह मोअय्यन और मालूम हो तो उतना ही अदा करे और ज़िम्मेदारी से अदा हो जाये लेकिन अगर मिक़दार नहीं मालूम तो जितने का यक़ीन है उतना अदा करना वाजिब है लेकिन बेहतर यह है कि इतना बढ़ाकर अदा करे कि ज़िम्मेदारी पूरी होने का यक़ीन हो जाए.

    छठी बात: अगर अभी वो मिक़दार मौजूद न हो तो जब भी हासिल हो जाये पहली फ़ुर्सत में दूसरों का हक़ अदा करे. और अगर आख़िरी उम्र तक अदा न कर सके तो अपने वारिसों को वसिय्यत करे कि या हक़दार को उसका हक़ अदा कर दें या उसे राज़ी कर लें और अगर किसी से भी कुछ मुमकिन न हो तो ज़्यादा से ज़्यादा तौबा व इस्तेग़फ़ार करें और हक़दार के लिए नेक काम अंजाम दें जैसे क़ज़ा नमाज़ें पढ़ना, रोज़ा रखना, क़ुरान की तिलावत करना…हो सकता है कि इन नेक कामों की बदौलत अल्लाह अपने फ़ज़्ल व करम से हक़दार को राज़ी करवा ले.

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