जवाब ( 1 )

  1. बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    क़ुराने करीम की कई आयतों और उसके अलावा रिवायतों की रौशनी में इस संसार के सारे जीव अल्लाह की तसबीह करते हैं लेकिन सबका तरीक़ा थोड़ा अलग-अलग है.

    تُسَبِّحُ لَهُ السَّماواتُ السَّبْعُ وَ الْأَرْضُ وَ مَنْ فِيهِنَّ وَ إِنْ مِنْ شَيْ‏ءٍ إِلَّا يُسَبِّحُ بِحَمْدِهِ وَ لكِن‏لا تَفْقَهُونَ تَسْبِيحَهُمْ

    (सूरए इसरा आयत न. 44)

    “तसबीह” का अर्थ है अल्लाह को हर तरह की उन कमियों और दोषों से मुक्त जानना जो उसकी मख़लूक़ (जीव, प्रकृति) में पाए जाते हैं.

    मख़लूक़ात (जमादात और पेड़ पौधों) की तसबीह के बारे में मुफ़स्सेरीन ने दो नज़रिये पेश किये हैं:

    ज़बाने हाल से तसबीह
    ज़बाने क़ाल से तसबीह

    “ज़बाने हाल से तसबीह”
    अबू नस्र फ़ाराबी, तबरसी, फ़ख़्रे राज़ी और आलूसी, मख़लूक़ात की तसबीह को “ज़बाने हाल” से जानते हैं. तफ़सीरे नमूना में भी यही नज़रिया पेश किया गया है. फ़ाराबी, मख़लूक़ात की तसबीह और नमाज़ के बारे में तफ़सीर करते हुए कहते हैं: आसमान अपने चक्कर लगाने के ज़रिये अल्लाह की बारगाह में नमाज़ बजा लाता है, ज़मीन भी हिलकर और बारिश बरस कर अपनी नमाज़ अदा करते हैं. इस नज़रिये के मुताबिक़ मख़लूक़ात और कायनात के ज़र्रों की तसबीह का तसव्वुर करना और उसकी तसदीक़ करना काफ़ी हद तक समझ में आता है क्योंकि संसार का कण-कण जो कार्य करता है, वही उसकी तसबीह है. मख़लूक़ात अस्ल में अपने पूरे अस्तित्व से अपने रचयता का पता देती हैं और ज़बाने हाल में कहती हैं कि अगर मेरे अन्दर कोई कमाल है तो वह मेरे बनाने वाले का दिया हुआ है और अगर कोई कमी है तो वह मेरी ज़ात का स्वभाविक परिणाम है और अल्लाह उस दोष से मुक्त है

    “ज़बाने क़ाल से तसबीह”
    इस तरह की तसबीह का अर्थ यह है कि सारी मख़लूक़ात अक़्ल व शुऊर (चेतना) रखती हैं और ज़बाने क़ाल से संसार के बनाने वाले की तसबीह और हम्द व सना बजा लाती हैं. “ज़बाने क़ाल” से ख़ुदा की तारीफ़ में मसरूफ़ हैं लेकिन हम संक्षेप में केवल इतना जानते हैं कि इस तरह की तसबीह का आधार यह है कि सारे जानवर और दूसरे प्राणी अपने अपने हिसाब से शुऊर (चेतना/समझ) रखते हैं और उसी के लिहाज़ से अपने परवरदिगार की तसबीह करते हैं और इस संसार के कण-कण में तसबीह का एक शोर है लेकिन हर इन्सान के बस की बात नहीं है कि उसे सुन सके उसे केवल वही लोग सुन सकते हैं जिन्होंने अपनी अंतरात्मा को शुद्ध किया हो और भौतिकवाद से बाहर निकल आये हों.

    अल्लामा तबातबाई फ़रमाते हैं: सारी मख़लूक की तसबीह वास्तविक और “ज़बाने क़ाल” से है “क़ाल” के लिए आवश्यक नहीं है कि बिलकुल वही शब्द सुनाई दें जो हम इन्सान बोलते हैं और बिलकुल तय शुदा हों.

    (तफ़सीरे अल-मीज़ान का अनुवाद, जि.13,पे.152)

    इस आधार पर निर्जीव वस्तुओं और पेड़-पौधों की तसबीह भी वास्तविक और ज़बाने क़ाल से है और यह सही नहीं है कि हम फ़रिश्तों और मोमेनीन की तसबीह को ज़बाने क़ाल की तसबीह कहें और दूसरी मख़लूक़ात की तसबीह को ज़बाने हाल की तसबीह कहें. इन्सान को अहले दिल, अहले बातिन और अहले हक़ीक़त बनना चाहिए ताकि भौतिक संसार से ऊपर की चीज़ों को भी समझ सके. जब हमारे अन्दर यह समझ आ जाएगी तो हमें पता चलेगा कि सारी मख़लूक़ात कैसे शुऊर रखती हैं, उनके पास ज्ञान है और अपने परवरदिगार की हम्द व सना और तसबीह करने वाली हैं.

    कुराने मजीद हज़रत दाऊद अ. के बारे में फ़रमाता है:

    وَ سَخَّرْنٰا مَعَ دٰاوُدَ اَلْجِبٰالَ يُسَبِّحْنَ وَ اَلطَّيْرَ وَ كُنّٰا فٰاعِلِينَ (सूरए अम्बिया आयत न. 79)

    إِنّٰا سَخَّرْنَا اَلْجِبٰالَ مَعَهُ يُسَبِّحْنَ بِالْعَشِيِّ وَ اَلْإِشْرٰاقِ وَ اَلطَّيْرَ مَحْشُورَةً كُلٌّ لَهُ أَوّٰابٌ (सूरए साद आयत न. 18-19)

    इन आयात में दो बिंदु ऐसे हैं जो मख़लूक़ात की ज़बान क़ाल में तसबीह करने को प्रमाणित करते हैं.

    एक यह कि परिंदे और पहाड़ तसबीह करने में हज़रत दाऊद का साथ देते हैं तो अगर यहाँ परिंदों और पहाड़ की तसबीह का अर्थ ज़बाने हाल से तसबीह होती तो हज़रत दाऊद का साथ देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता क्योंकि आयत का सन्दर्भ एक ही है, इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि हज़रत दाऊद की तसबीह को हम “ज़बाने क़ाल” से निस्बत दें और मख़लूक़ात की तसबीह को ज़बाने हाल की तसबीह कहें क्योंकि ज़बाने हाल की तसबीह तो हज़रत दाऊद के बिना भी मौजूद है. दूसरा बिंदु यह है कि आयत में कहा गया है कि सुबह व शाम के वक़्त पहाड़ और परिंदे अल्लाह की तसबीह करने में हज़रत दाऊद का साथ देते हैं. मुमकिन है यह कहा जाये कि सुबह व शाम का अर्थ दिन व रात है और मतलब यह है कि पहाड़ और परिंदे हमेशा तसबीह करते रहते हैं लेकिन पहले वाले बिंदु को देखते हुए यह निष्कर्ष निकलता है कि वह तसबीह करने में सुबह व शाम हज़रत दाऊद का साथ देते हैं तो इसका मतलब यह है कि “सुबह” और “शाम” के वास्तविक अर्थ ही यहाँ पर लिए जा सकते हैं और यह वस्तुएं सुबह शाम को हज़रत दाऊद के साथ “ज़बाने क़ाल” से ही तसबीह करती थीं क्योंकि ज़बाने हाल में तो उनकी तसबीह हमेशा मौजूद रहती है यानी अपने कार्यों के द्वारा अल्लाह के वुजूद को साबित करते रहते हैं. अब यहाँ पर बिंदु यह है कि हज़रत दाऊद के पास ऐसे कान थे जिनसे वह उन मख़लूक़ात की तसबीह सुन लेते थे और अगर हमारे अन्दुरूनी कान भी तेज़ हो जाएँ तो हम भी उनकी तसबीह सुन सकते हैं.

    (अल-मीज़ान, जि.13,पे.120-121)

    पैग़म्बरे इस्लाम स. की हथेली पर कंकरियों के तसबीह करने के वाक़ेए के बारे में शहीद मुतह्हरी फ़रमाते हैं: यहाँ पर पैग़म्बर स. का मोजिज़ा यह नहीं था कि कंकरियों को तसबीह पढ़ाई बल्कि उनका मोजिज़ा यह था कि लोगों के कानों को खोल दिया और उन्होंने कंकरियों की आवाज़ सुनी, वह कंकरियां तो हमेशा ही तसबीह करती थीं लेकिन रसूले अकरम स. का मोजिज़ा था उस तसबीह की आवाज़ लोगों को सुनाना, न कि कंकरियों को तसबीह पढ़ाना.

    (बिहारुल अनवार, जि. 57, पे. 169)

    (मुर्तज़ा मुतह्हरी, आशनाई बा क़ुरान, जि.4,पे.174)

    इस आधार पर कहा जा सकता है कि मख़लूक़ात की “ज़बाने क़ाल” से तसबीह को पाक दिल और मारेफ़त रखने वाले इन्सान सुन और समझ सकते हैं.

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