क्या सिलए रहेम करना वाजिब है और न करना एक वाजिब छोड़ना है?
Question
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जवाब ( 1 )
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
जी हाँ, सिलए रहेम वाजिब है चाहे वो एक सलाम की हद तक ही क्यों न हो. बातचीत न करना क़तए रहेम की ही एक शक्ल है हालाँकि उसमें और भी चीज़ें शामिल हैं जिनसे पूरी तरह क़तए रहेम माना जाता है, बहरहाल किसी भी सूरत में क़तए रहेम मुनासिब अमल नहीं है क्योंकि रसूले ख़ुदा स. फ़रमाते हैं: ابغَضُ الاعمالِ الی الله الشِرکُ بالله، ثمّ قطعیهُ الرَّحمِ . . अल्लाह के नज़दीक शिर्क के बाद सबसे बुरा अमल क़तए रहेम है
(जामेउस-सआदात,जि.2,पे.342)
इसी तरह आप स. फ़रमाते हैं: لا یَدخُلُ الجنَّهَ قاطِعُ الرَّحِمِ क़तए रहेम करने वाला जन्नत में दाख़िल नहीं हो सकता
(बिहारुल अनवार,जि.74,पे.91)
इस गुनाह से सिर्फ़ आख़ेरत में ही अज़ाब नहीं होता बल्कि यह उन गुनाहों में से है जिसका अज़ाब दुनिया में भी होता है और आख़ेरत में भी. इमामे बाक़िर अ. फ़रमाते हैं: ثلاثُ خصالٍ لا یموتُ صاحِبُهنَّ ابداً حتّی یری وبالَهنَّ البغیُ و قطیعهُ الرّحم و الیمین الکاذبه तीन गुनाह ऐसे हैं जिनका अंजाम देने वाला उसका अज़ाब चखे बिना नहीं मरेगा, ज़ुल्म, क़तए रहेम, झूठी क़सम
(उसूले काफ़ी,जि.2,पे.348)
हज़रत अली अ. फ़रमाते हैं: قطیعهُ الرّحم تورِثُ الفَقرَ क़तए रहेम से ग़ुरबत और फ़क़ीरी आती है
(बिहारुल अनवार,जि.71,पे.91)
यह उन गुनाहों में से है जिसका अजाब उसके अंजाम देने वाले तक महदूद नहीं रहता बल्कि उस समाज को अपनी चपेट में ले लेता है जो इस बुरे काम के करने वालों के अमल को क़ुबूल करता है.
रसूले ख़ुदा स. फ़रमाते हैं: انّ الرّحمهَ لا تنزِلُ عَلی قَومٍ فیهِم قاطِعُ رَحِمٍ अल्लाह की रहमत उस क़ौम को शामिल नहीं होती जिसमे क़तए रहेम करने वाला रहता हो.
(कन्ज़ुल उम्माल,हदीस 6978)
इमामे सादिक़ फ़रमाते हैं: نَعوذُ باللهِ عن الذنوبِ الّتی تُعجّل الفَناءَ و تُقَرّب الآجال و تخلیّ الدیّار وَ هیَ قطیعهُ الرَّحمِ و العقوقِ و ترکُ البرِّ हम पनाह मांगते हैं ऐसे गुनाहों से जिनसे बर्बादियाँ क़रीब आयें, मौतें नज़दीक हो जायें, आबादियाँ वीरान हो जाएँ और वह क़तए रहेम है, आक़ होना है, नेकी को भुला देना है.
(उसूले काफ़ी,जि.2,पे.184)
हाँ, सिलए रहमी के लिए अपने आप को ज़लील करने की ज़रुरत नहीं लेकिन बहरहाल सिलए रहेमी बरक़रार रखना है चाहे एक सलाम की हद तक ही क्यों न हो, मौलाए कायनात अली अ. फ़रमाते हैं: صِلوُا أرحامَکُم و لو بالتّسلیمِ. सिलए रहेम बरक़रार रखो चाहे सलाम की हद तक ही सही.
(उसूले काफ़ी,जि.2,पे.155)
हो सकता है कि आपकी सिलए रहेमी की वजह से एक न एक दिन उनके दिल में जगह बन जाए, इस सिलसिले में हज़रत अली अ. फ़रमाते हैं: صلهُ الرّحم تُوجِبُ المُحبَّه و تکبِتُ العدوّ सिलए रहेमी मुहब्बत का सबब बनती है और दुश्मन ज़लील होता है.
(ग़ोररुल हिकम,पे.46,हदीस 9309)