जवाब ( 1 )

  1. बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    हिदायत (मार्गदर्शन) का अर्थ दलालत (अभिप्राय) और रहनुमाई (गाइडेंस) है और इसकी दो क़िस्में हैं:

    1) इराय-ए-तरीक़ (रास्ता दिखाना)

    2) ईसाल इलल मतलूब (मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाना)

    वज़ाहत:

    कभी इंसान रास्ता मालूम करने वाले को अपनी तमाम दिक़्क़त (बारीक निगाहों) और लुत्फ़ व करम के साथ रास्ते का पता बताता है, लेकिन रास्ता तय करना और मंज़िले मक़सूद (अंतिम लक्ष्य) तक पहुंचना खुद इस इंसान का काम होता है,और कभी इंसान रास्ता मालूम करने वाले का हाथ पकड़ता है और रास्ते की रहनुमाई के साथ साथ उसको मंज़िले मक़सूद तक पहुंचा देता है.

    इंसान पहले मरहले (चरण) में सिर्फ़ क़ानून बयान करता है,और मंज़िले मक़सूद तक पहुंचने के शराएत बयान कर देता है,लेकिन दूसरे मरहले (चरण) में उन चीज़ों के अलावा सामाने सफ़र भी मोहय्या करता है और इसमें सामने आने वाली रुकावटों को भी दूर कर देता है,साथ ही साथ उसकी मुश्किलात को दूर करता है और इस राह पर चलने वालों के साथ साथ उनको मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाने में हिफाज़त भी करता है.

    अगर इंसान क़ुरआने मजीद की आयात पर संक्षेप में एक नज़र डाले तो यह बात वाज़ेह (स्पष्ट) हो जाती है कि क़ुरआने करीम ने हिदायत और गुमराही को फ़ेले ख़ुदा (अल्लाह का काम) शुमार किया है,और दोनों की निस्बत (संबंध) उसी की तरफ़ दी गयी है,अगर हम इस सिलसिले की तमाम आयात को इकठ्ठा करें तो बहस लम्बी हो जाएगी,लिहाज़ा सिर्फ़ इशारा ही काफ़ी है:

    और ख़ुदा जिसको चाहता है सिराते मुस्तक़ीम (सीधे रास्ते) की हिदायत दे देता है.

    (सूरह बक़रह,आयत 213)

    ख़ुदा जिसे चाहता है गुमराही में छोड़ देता है और जिसे चाहता है मंज़िले हिदायत तक पहुंचा देता है.

    (सूरह नह्ल,आयत 93)

    हिदायत व गुमराही के हवाले से क़ुरआने मजीद में बहुत सी आयतें मौजूद हैं.

    नमूने के तौर पर:

    1.सूरह फ़ातिर, आयत 8

    2. सूरह ज़ोमर,आयत 23

    3. सूरह मुद्दस्सिर,आयत 31

    4. सूरह बक़रह,आयत 272

    5. सूरह अन’आम,आयत 88

    6. सूरह यूनुस,आयत 25

    7. सूरह रा’द,आयत 27

    8. सूरह इब्राहीम,आयत 4

    बल्कि इसके अलावा कुछ आयात में वाज़ेह तौर पर पैग़म्बरे अकरम (स.) के लिए हिदायत देने का खंडन किया गया है और ख़ुदा की तरफ़ निस्बत दी है,जैसे:

    (ऐ मेरे पैग़म्बर!) आप जिसे चाहें उसे हिदायत नहीं दे सकते बल्कि अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है.

    (सूरह क़सस,आयत 56)

    ऐ पैग़म्बर! उनके हिदायत पाने की ज़िम्मेदारी आप पर नहीं है,बल्कि ख़ुदा जिसको चाहता है हिदायत दे देता है.

    (सूरह बक़रह,आयत 272)

    इन आयात के गहरे मानी को न समझ पाने की वजह से कुछ लोग उन के ज़ाहिरी (शाब्दिक) अर्थ पर भरोसा करते हुए इन आयात की तफ़सीर (स्पष्टीकरण) में ऐसे “गुमराह” हुए और राहे “हिदायत” से भटके कि “जबरिया” फ़िरक़े के अक़ाएद की आग में जा गिरे और यही नहीं बल्कि कुछ मशहूर मुफ़स्सेरीन भी इस आफ़त से न बच सके और इस फ़िरक़े की ख़तरनाक वादी में फँस गए हैं, यहाँ तक कि हिदायत व गुमराही के तमाम मराहिल (चरणों) को “जब्री” तरीक़े पर मान बैठे, और ताज्जुब की बात यह है कि जैसे ही उन्होंने इस अक़ीदे को ख़ुदा के अद्ल व हिकमत के विपरीत देखा तो अद्ले इलाही के ही मुनकिर हो गए. लेकिन हक़ीक़त यह है कि अगर हम “जब्र” के अक़ीदे को मान लें तो फिर शरई जिम्मेदारियाँ व फ़रीज़े, अम्बिया का अल्लाह की तरफ़ से आना और आसमानी किताबों के नुज़ूल का कोई मतलब ही नहीं रह जाता.

    लेकिन जो लोग नज़रिय-ए-ٴ“इख़्तियार” के तरफ़दार हैं,वह यह अक़ीदा रखते हैं कि कोई भी अक़्ले सलीम इस बात को क़ुबूल नहीं कर सकती कि ख़ुदावन्दे आलम किसी को गुमराही का रास्ता तय करने पर मजबूर करे और फिर उस पर अज़ाब भी करे, या कुछ लोगों को “हिदायत” के लिए मजबूर करे और फिर बिला वजह उनको इस काम का इनाम और सवाब (पुण्य) भी दे और उन को ऐसे काम की वजह से दूसरों पर तरजीह (प्राथमिकता) दे जो उन्होंने अंजाम ही नहीं दिया है.

    लिहाज़ा उन्होंने इन आयात की तफ़सीर के लिए एक दूसरा रास्ता इख़्तियार किया है और इस सिलसिले में बहुत ही सही तफ़सीर की है जो हिदायत व गुमराही के सिलसिले में बयान होने वाली तमाम आयात से मेल खाती है और बग़ैर किसी ज़ाहिरी ख़िलाफ़ (प्रतिकूलता) के बेहतरीन तरीक़े से उन तमाम आयात की तफ़सीर करती है और वह तफ़सीर यह है:

    आम हिदायत यानी रास्ता दिखाना,यह तमाम लोगों के लिए है, इस में किसी तरह की कोई क़ैद व शर्त नहीं है,जैसा कि सूरह दहेर आयत नंबर 3 में है: “निस्संदेह हमने इस (इंसान) को रास्ते की हिदायत दे दी है चाहे वह शुक्रगुज़ार हो जाये या कुफ़रान-ए-नेमत करने वाला हो जाये”

    लेकिन ख़ास हिदायत यानी मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाना,रास्ते की तमाम रुकावटों को दूर करना,और साहिले नजात पर पहुँचने तक हर तरह की हिमायत व हिफाज़त करना,जैसा कि क़ुरआन-ए-मजीद की बहुत सी आयात में बयान हुआ है,यह हिदायत बहुत से क़ैद व शर्त के साथ है और यह हिदायत एक विशेष गिरोह से मख़सूस है जिस के सिफ़ात (गुण) खुद क़ुरआन-ए-मजीद में बयान हुए हैं, और इसके विपरीत “ज़लालत व गुमराही” है, वह भी ख़ास गिरोह से मख़सूस है,जिसके सिफ़ात भी क़ुरआन-ए-मजीद में बयान हुए हैं.

    क़ुरआन-ए-मजीद में इरशाद होता है : “ख़ुदा इसी तरह बहुत से लोगों को गुमराही में छोड़ देता है और बहुत सारे लोगों को हिदायत दे देता है और गुमराही सिर्फ़ उन्ही का हिस्सा है जो फ़ासिक़ (अधर्मी) हैं”

    (सूरह बक़रह, आयत 26)

    यहाँ पर ज़लालत व गुमराही की जड़, फ़िस्क़ व फ़ुजूर (अधर्म व पाखण्ड) और अल्लाह के हुक्म की मुख़ालेफ़त (अवहेलना) बताई गयी है.

    एक दूसरी जगह इरशाद होता है: “और अल्लाह ज़ालिमों की हिदायत नहीं करता”

    (सूरह बक़रह, आयत 258)

    इस आयत में ज़ुल्म पर ध्यान आकर्षित किया गया है और इसको ज़लालत व गुमराही का रास्ता तैयार करने वाला बताया गया है.

    एक और आयत में इरशाद होता है: “और अल्लाह काफ़िरों की हिदायत कभी नहीं करता”

    (सूरह बक़रह,आयत 264)

    यहाँ पर कुफ्ऱ को गुमराही का सबब बताया गया है.

    नतीजा यह हुआ कि क़ुरआन-ए-मजीद ने ख़ुदा की तरफ़ से ज़लालत व गुमराही उन्ही लोगों के लिए मख़सूस (विशेष) की है जिनमें यह सिफ़ात (गुण) पाए जाते हों: “कुफ्ऱ ” , “ज़ुल्म ”, “फ़िस्क़” वग़ैरह (इत्यादि).

    इस तरह के आमाल और सिफ़ात कुछ ख़ास असर (प्रभाव) रखते हैं जो आख़िरकार इंसान में मोअस्सिर (प्रभावी) होते हैं और उसकी अक़्ल, आँख और कान पर पर्दा डाल देते हैं, उसको ज़लालत व गुमराही की तरफ़ खींचते हैं और चूंकि तमाम चीज़ों की ख़ासियत (विशेषता) और तमाम असबाब के असरात ख़ुदा के हुक्म से हैं, इस हिसाब से ज़लालत व गुमराही को इन तमाम जगहों पर ख़ुदा की तरफ़ निस्बत (संबंध) दी जा सकती है, लेकिन यह निस्बत खुद इंसान के इरादे व इख़्तियार की वजह से है और यह उसी पर निर्भर है.

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