जवाब ( 1 )

  1. बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    चूंकि हज़रत अली अ., इमाम की हैसियत से हाकिम नहीं बने थे, बल्कि मुसलमानों के चौथे ख़लीफ़ा के तौर पर हाकिम बने थे इसलिए ज़बरदस्ती अज़ान में अपनी विलायत को दाख़िल करने से पहले लोगों के दिल व दिमाग़ में इमामत व विलायत की हक़ीक़त को बिठाना ज़रूरी था, इमामत व विलायत दिल से मानने वाली चीज़ है, ज़बरदस्ती हुकूमत के जोर पर मनवाने वाली चीज़ नहीं है. रिवायत में है कि इमाम की मिसाल काबे की तरह है.

    عن فاطمة الزهرا (سلام الله علیها): لقد قال رسول الله (صلی الله علیه وآله وسلم) مثل الامام مثل الکعبة اِذْ تُؤْتی ولا تأتی

    (बिहारुल अनवार, जि. 36, पे. 353)

    इमाम की मिसाल काबे की तरह है, यह लोगों का फ़र्ज़ (कर्तव्य) है कि इमाम के पास आयें, इमाम की पैरवी करके, इमाम का दामन थाम के ख़ुद को और समाज को दुनिया और आख़ेरत में अस्ली कामयाबी तक पहुँचायें. क्योंकि दुनिया और आख़ेरत की कामयाबी सिर्फ़ इमाम की बदौलत मुमकिन है और बस.

    तो इमाम की हिदायत (मार्गदर्शन) का तरीक़ा मंज़िल तक पहुँचाने वाला है इसलिए ज़रूरी है कि लोग ख़ुद को इमाम के हवाले कर दें इसलिए यह लोगों का फ़र्ज़ (कर्तव्य) है कि वो इमाम की ख़िदमत में आयें. इमाम, इमाम की हैसियत से लोगों के पास नहीं जाता, जिस तरह काबा लोगों के पास चलकर नहीं जाता बल्कि लोग काबे के पास आते हैं जैसे हमारे यहाँ एक मिसाल (उदाहरण) दी जाती है कि प्यासा ख़ुद कुवें के पास जाता है, कुवां प्यासे के पास चलकर नहीं आता.

    सारी मुश्किलों की जड़ यही है कि लोग इमामत व विलायत के मक़ाम को अच्छी तरह नहीं पहचनाते और इस बात को लेकर बहुत सी ग़लतफ़ह्मियों (भ्रम) का शिकार हैं, अगर इमामत व विलायत के कांसेप्ट को सही से समझ लिया जाये तो सारे मस’अले हल हो जाएँ

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